रात-रात भर
रहे सिसकते
संसद के गलियारे।
बौने-बौने लोगों ने की
बातें ऊँची-ऊँची
सूरज के चेहरे
पर मल दी
कालिख साफ-समूची
जुगनू का आखेट खेलने
निकल पड़े अंधियारे।
‘सत्यमेव-जयते’
के नीचे
झूठ अकड़ कर बैठा
शोर-शराबे में सन्नाटा
सन्नाटे से ऐंठा
सच्चाई की गरदन छोटी
भारी-भरकम आरे।
भाषा को निर्जीव
समझ कर
ऐसे पत्थर मारे
झरनों की झोली में डाले
सब ने सागर खारे
जोर जबरदस्ती शबनम को
दे डाले अंगारे।
हँसी-ठिठोली
चुहलबाजियाँ
व्यंग्य जहर में डूबे
सारहीन चर्चाएँ सुनकर
दरवाजे भी ऊबे
उहापोह असमंजस में हैं
लोकराज के नारे।